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9th Hindi NCERT CBSE Book Kshitij

उपभोक्तावाद की संस्कृति: 9th Class (CBSE) Hindi Kshitij Ch 03

उपभोक्तावाद की संस्कृति 9th Class (CBSE) Hindi क्षितिज

प्रश्न: ‘सुख की व्याख्या बदल गई है’ के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
अथवा
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के आधार पर बताइए कि कौन-सी बात सुख बनकर रह गई है?

उत्तर: पहले लोगों को त्याग, परोपकार तथा अच्छे कार्यों से मन को जो सुख-शांति मिलती थी उसे सुख मानते थे, पर आज विभिन्न वस्तुओं और भौतिक साधनों के उपभोग को सुख मानने लगे हैं।

प्रश्न: ‘हम जाने-अनजाने उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं’ – का आशय उपभोक्तावाद की संस्कृति के आधार पर कीजिए।

उत्तर: ‘हम जाने-अनजाने उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं’ का आशय यह है कि वस्तुओं की आवश्यकता और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना वस्तुओं को खरीदकर उनका उपभोग कर लेना चाहते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम उपभोग के लिए बने हो।

प्रश्न: नई जीवन शैली का बाजार पर क्या प्रभाव पड़ा है? उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ के आधार पर लिखिए।

उत्तर: नई जीवन शैली अर्थात् उपभोक्तावाद की पकड़ में आने के बाद व्यक्ति अधिकाधिक वस्तुएँ खरीदना चाहता है। इस कारण बाज़ार विलासिता की वस्तुओं से भर गए हैं तथा तरह-तरह की नई वस्तुओं से लोगों को लुभा रहे हैं।

प्रश्न: पुरुषों का झुकाव सौंदर्य प्रसाधनों की ओर बढ़ा है। ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के आलोक में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: पुरुष पहले प्रायः तेल और साबुन से काम चला लेते थे परंतु उपभोक्तावाद के प्रभाव के कारण उनका झुकाव सौंदर्य प्रसाधनों की ओर बढ़ा है। अब वे आफ्टर शेव और कोलोन का प्रयोग करने लगे हैं।

प्रश्न: ‘व्यक्तियों की केंद्रिकता’ से क्या तात्पर्य है? ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: ‘व्यक्ति की केंद्रिकता’ का तात्पर्य है – अपने आप तक सीमित होकर रह जाना। अर्थात् व्यक्ति पहले दूसरों के सुख-दुख को अपना समझता था तथा उसे बाँटने का प्रयास करता था परंतु अब स्वार्थवृत्ति के कारण उन्हें दूसरों के दुख से कोई मतलब नहीं रह गया है।

प्रश्न: संस्कृति की नियंत्रक शक्तियाँ कौन-सी हैं। आज उनकी स्थिति क्या है?

उत्तर: कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जो भारतीय संस्कृति पर नियंत्रण करती हैं। ये शक्तियाँ हैं – धर्म, परंपराएँ, मान्यताएँ, रीति-रिवाज, आस्थाएँ पूजा-पाठ आदि हैं। नई जीवन शैली के कारण लोगों का इनसे विश्वास उठता जा रहा है और ये शक्तियाँ कमजोर होती जा रही हैं।

प्रश्न: लोग उपभोक्तावादी संस्कृति अपनाते जा रहे हैं। इसका क्या परिणाम हो रहा है?

उत्तर: नई संस्कृति के प्रभाव स्वरूप लोगों द्वारा उपभोग को ही सबकुछ मान लिया गया है। विशिष्ट जन सुख साधनों का खूब उपयोग कर रहे हैं जबकि सामान्य जन इसे ललचाई नजरों से देख रहे हैं। इस कारण सामाजिक दूरियाँ बढ़ रही हैं तथा सुख शांति नष्ट हो रही है।

प्रश्न: ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ क्या है? ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ का इस पर क्या असर पड़ा है?

उत्तर: ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ का अर्थ है – हमारी सांस्कृतिक पहचान अर्थात् हमारे जीने, खान-पान, रहन-सहन, सोचने-विचारने आदि के तौर-तरीके जो हमें दूसरों से अलग करते हैं तथा जिनसे हमारी विशिष्ट पहचान बनी है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सांस्कृतिक अस्मिता कमजोर होती जा रही है।

प्रश्न: विज्ञापन हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है?
अथवा
विज्ञापनों की अधिकता का हमारे जीवन शैली पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: विज्ञापनों की भाषा बडी ही आकर्षक और भ्रामक होती है। आज उत्पाद को बेचने के लिए हमारे चारों ओर विज्ञापनों का जाल फैला है। इसके प्रभाव में आकर हम विज्ञापित वस्तुओं का उपयोग करने लगे हैं। अब वस्तुओं के चयन में गुणवत्ता पर ध्यान न देकर विज्ञापनों को आधार बनाया जाता है।

प्रश्न: समाज में बढ़ती अशांति और आक्रोश का मूलकारण आप की दृष्टि में क्या है? उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: समाज में बढ़ती अशांति और आक्रोश का मूल कारण उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाना है। पश्चिमी जीवन शैली को बढाने वाली तथा दिखावा प्रधान होने के कारण विशिष्ट जन इसे अपनाते हैं और महँगी वस्तुओं के उपयोग को प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं जबकि कमजोर वर्ग इसे ललचाई नजरों से देखता है।

प्रश्न: ‘खिड़की-दरवाजे’ खुले रखने के लिए किसने कहा था? इसका अर्थ भी स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: भारतीयों द्वारा अंधाधुंध पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने के संबंध में गांधी जी ने कहा था कि हमें अपनी बुधि-विवेक से सोच-विचार कर पश्चिमी जीवन शैली के उन्हीं आंशों को अपनाना चाहिए जो हमारी भारतीय संस्कृति के लिए घातक सिद्ध न हों। हमें भारतीय संस्कृति को बचाए रखना है।

प्रश्न: लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: लेखक के अनुसार उपभोग का भोग करना ही सुख है। अर्थात् जीवन को सुखी बनाने वाले उत्पाद का ज़रूरत के अनुसार भोग करना ही जीवन का सुख है।

प्रश्न: आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?

उत्तर: आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे जीवन पर हावी हो रही है। मनुष्य आधुनिक बनने की होड़ में बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम की संस्कृति का अनुकरण किया जा रहा है। आज उत्पाद को उपभोग की दृष्टि से नहीं बल्कि महज दिखावे के लिए खरीदा जा रहा है। विज्ञापनों के प्रभाव से हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं।

प्रश्न: गांधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?

उत्तर: उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। इसके कारण हमारी सामाजिक नींव खतरे में है। मनुष्य की इच्छाएँ बढ़ती जा रही है, मनुष्य आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। सामाजिक दृष्टिकोण से यह एक बड़ा खतरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि यह बदलाव हमें सामाजिक पतन की ओर अग्रसर कर रहा है।

प्रश्न: कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?

उत्तर: आज का मनुष्य विज्ञापन के बढ़ते प्रभाव से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया है। आज विज्ञापन का सम्बन्ध केवल सुख-सुविधा से नहीं है बल्कि समाज में अपने प्रतिष्ठा की साख को कायम रखना ही विज्ञापन का मुख्य उद्देश्य बन चुका है। यही कारण है कि जब भी टी.वी. पर किसी नई वस्तु का विज्ञापन आता है तो लोग उसे खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं।

प्रश्न: आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें।

उत्तर: वस्तुओं को खरीदने का आधार उसकी गुणवत्ता होनी चाहिए क्योंकि विज्ञापन केवल उस वस्तु को लुभाने का प्रयास करता है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अच्छी किस्म की वस्तु का विज्ञापन साधारण होता है।

प्रश्न: पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर: “जो दिखता है वही बिकता है”। आज के युग ने इसी कथ्य को स्वीकारा है। ज़्यादातर लोग अच्छे विज्ञापन, उत्पाद के प्रतिष्ठा चिह्न को देखकर प्रभावित होते हैं। दिखावे की इस संस्कृति ने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरियाँ बढ़ा दी है। यह संस्कृति मनुष्य में भोग की प्रवृति को बढ़ावा दे रही है। हमें इस पर नियंत्रण करना चाहिए।

प्रश्न: आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।

उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति से हमारे रीति-रिवाज़ और त्योहार भी बहुत हद तक प्रभावित हुए हैं। आज त्योहार, रीति-रिवाज़ का दायरा सीमित होता जा रहा। त्योहारों के नाम पर नए-नए विज्ञापन भी बनाए जा रहे हैं; जैसे – त्योहारों के लिए खास घड़ी का विज्ञापन दिखाया जा रहा है, मिठाई की जगह चॉकलेट ने ले ली है। आज रीति-रिवाज़ का मतलब एक दूसरे से अच्छा लगना हो गया है। इस प्रतिस्पर्धा में रीति-रिवाज़ों का सही अर्थ कहीं लुप्त हो गया है।

प्रश्न: आशय स्पष्ट कीजिए:

  • जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
  • प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।

उत्तर:

  • आज का समाज उपभोक्तावादी समाज है जो विज्ञापन से प्रभावित हो रहा है। आज लोग केवल अपनी सुख-सुविधा के लिए उत्पाद नहीं खरीदते बल्कि उत्पाद खरीदने के पीछे उनका मकसद समाज में अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को कायम रखना है। उदाहरण के लिए पहले केवल तेल-साबुन तथा क्रीम से हमारा काम चल जाता था लेकिन आज प्रतिष्ठित बनने की होड़ में लोग सबसे कीमती साबुन, फेस-वॉश का इस्तेमाल कर रहे हैं।
  • उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव ने मनुष्य को सुविधाभोगी बना दिया। परन्तु आज सुख-सुविधा का दायरा बढ़कर, समाज में प्रतिष्ठिता बढ़ाने का साधन बन गया है। स्वयं को समाज में प्रतिष्ठित बनाने के लिए लोग कभी-कभी हँसी के पात्र बन जाते हैं। यूरोप के कुछ देशों में मरने से पहले लोग अपनी कब्र के आस-पास सदा हरी घास, मन चाहे फूल लगवाने के लिए पैसे देते हैं। भारत में भी यह संभव हो सकता है। ऐसी उपभोक्तावादी इच्छा हास्यापद ही है।

प्रश्न: धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।

इस वाक्य में ‘बदल रहा है’ क्रिया है। यह क्रिया कैसे हो रही है – धीरे-धीरे। अत: यहॉँ धीरे-धीरे क्रिया-विशेषण है। जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, क्रिया-विशेषण कहलाते हैं। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है, वहाँ वह शब्द क्रिया-विशेषण कहलाता है।

  • ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त लगभग पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
  • धीरे–धीरे, ज़ोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज़्यादा, यहाँ, उधर, बाहर – इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
  • नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए:

वाक्य            क्रिया–विशेषण          विशेषण

  1. कल रात से निरंतर बारिश हो रही है।
  2. पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ गया।
  3. रसोईघर से आती पुलाव की हलकी खुशबू से मुझे ज़ोरों की भूख लग आई।
  4. उतना ही खाओ जितनी भूख है।
  5. विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाज़ार भरा पड़ा है।

उत्तर:

(क) क्रिया-विशेषण से युक्त शब्द:

  1. एक छोटी–सी झलक उपभोक्तावादी समाज की।
  2. आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें।
  3. हमारा समाज भी अन्य-निर्देशित होता जा रहा है।
  4. लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं।
  5. एक सुक्ष्म बदलाव आया है।

(ख) क्रिया-विशेषण शब्दों से बने वाक्य:

  1. धीरे–धीरे: धीरे-धीरे मनुष्य के स्वभाव में बदलाव आया है।
  2. ज़ोर से: इतनी ज़ोर से शोर मत करो।
  3. लगातार: बच्चे शाम से लगातार खेल रहे हैं।
  4. हमेशा: वह हमेशा चुप रहता है।
  5. आजकल: आजकर बहुत बारिश हो रही है।
  6. कम: यह खाना राजीव के लिए कम है।
  7. ज़्यादा: ज़्यादा क्रोध करना हानिकारक है।
  8. यहाँ: यहाँ मेरा घर है।
  9. उधर: उधर बच्चों का स्कूल है।
  10. बाहर: अभी बाहर जाना मना है।

(ग)

क्रिया–विशेषण

निरंतर
मुँह में पानी
भूख हल्की
भूख
आजकल

विशेषण

कल रात
पके आम
खुशबू
उतना, जितना
भरा

प्रश्न: उपभोक्तावादी संस्कृति के विभिन्न दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। आप उनका उल्लेख करते हुए इनसे बचने के उपाय बताइए।

उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति उपभोग और दिखावे की संस्कृति है। लोगों ने इसे बिना सोचे-समझे अपनाया ताकि वे आधुनिक कहला सकें। इस संस्कृति का दुष्परिणाम सामाजिक अशांति में वृधि, समरसता में कमी विषमता आदि रूपों में सामने आने लगा है। इस कारण सामाजिक मर्यादाएँ टूटने लगी हैं, नैतिक मानदंड कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं और लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणाम से बचने के लिए-

  1. भारतीय संस्कृति को अपनाए रखना चाहिए।
  2. आधुनिक बनने के चक्कर में पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
  3. दिखावे की प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
  4. आवश्यकतानुसार एवं गुणवत्ता को ध्यान में रखकर वस्तुएँ खरीदनी चाहिए।

प्रश्न: गांधी जी उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रति क्या विचार रखते थे? वे किस संस्कृति को श्रेयस्कर मानते थे?

उत्तर: गांधीजी भारत के लिए उपभोक्तावादी संस्कृति को अच्छा नहीं मानते थे। यह संस्कृति मानवीय गुणों का नाश करती है, लोगों में स्वार्थवृत्ति और आत्मकेंद्रिता बढ़ाती है, जिससे लोगों में परोपकार त्याग, दया, सद्भाव समरसता जैसे गुणों का अभाव होता जा रहा है। सुख-सुविधाओं का अधिकाधिक उपयोग और दिखावा करना मानो इस संस्कृति का लक्ष्य बनकर रह गया है। सुख-शांति का इससे कोई सरोकार ही नहीं है। इससे हमारी नींव कमज़ोर हो रही है जिससे भारतीय संस्कृति के लिए खतरा एवं चुनौती उत्पन्न हो गई है। गांधी जी भारतीय संस्कृति को श्रेयस्कर मानते थे जो मनुष्यता को बढ़ावा देती है।

प्रश्न: उपभोक्तावादी संस्कृति का व्यक्ति विशेष पर क्या प्रभाव पड़ा है? उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति ने व्यक्ति विशेष को गहराई तक प्रभावित किया है। व्यक्ति इसके चमक-दमक और आकर्षण से बच नहीं पाया है। व्यक्ति चाहता है कि वह अधिकाधिक सुख-साधनों का प्रयोग करे। इसी आकांक्षा में वह वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना उत्पाद के वश में हो गया है। इससे उसके चरित्र में बदलाव आया है। विज्ञापनों की अधिकता से व्यक्ति उन्हीं वस्तुओं को प्रयोग कर रहा है जो विज्ञापनों में बार-बार दिखाई जाती है। व्यक्ति महँगी वस्तुएँ खरीदकर अपनी हैसियत का प्रदर्शन करने लगा है।

प्रश्न: उपभोक्तावादी संस्कृति का अंधानुकरण हमारी संस्कृति के मूल तत्वों के लिए कितना घातक है? ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ के आलोक में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति और भारतीय संस्कृति में कोई समानता नहीं है। यह संस्कृति भोग एवं दिखावा को बढ़ावा देती है। जबकि भारतीय संस्कृति त्याग एवं परोपकार को बढ़ावा देती है। इस तरह हमारी संस्कृति के मूल तत्वों पर प्रहार हो रहा है। इसके अलावा-स्वार्थवृत्ति, आत्म केंद्रितता लाभवृत्ति को बढ़ावा उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है। अब हम दिखावे के चक्कर में पड़कर त्योहारों और विभिन्न कार्यक्रमों में महँगे उपहार देकर अपनी हैसियत जताने लगे हैं। इसके अलावा इन उपहारों और कार्डों को खुद न देकर कोरियर आदि से भेजने लगे हैं। हमारे ये कार्य-व्यवहार भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को नष्ट करते हैं।

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