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युद्ध: अभिशाप या वरदान पर निबंध छात्रों के लिए

मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी, महत्वाकांक्षी और अहंकारी होता है। वह स्वयं को, अपने विचारों और सिद्धान्तों को अन्यों की तुलना में श्रेष्ठ मानता है। ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और दूसरों से स्वयं को अधिक शक्तिशाली दिखाने की प्रवृत्ति भी मनुष्य में होती है। ये सब आसुरी भाव हैं जिनका सम्बन्ध रजोगुण एवं तमोगुण हैं। सतोगुण की तुलना में रजोगुण और तमोगुण अधिक प्रभावशाली हैं और उन्हीं के कारण विश्व मव अशान्ति रहती है। सभी धर्म, धर्माचार्य, धर्मग्रन्थ आसुरी गुणों पर दैवी गुणों की विजय का आह्वान करते हैं, पर विश्व का इतिहास बताता है कि देवासुर-संग्राम से लेकर द्वितीय महायुद्ध तक और उसके बाद भी विनाशकारी युद्धों की अटूट श्रृंखला चलती रही है और लगता है भविष्य में भी युद्ध होते रहेंगे। सारांश यह कि युद्धों का कारण मनुष्य की आसुरी प्रवृति, दूषित मनोवृत्ति और रुग्ण मानसिकता ही हैं। प्राचीन काल में माना जाता था कि जो कुछ होता है वह ईश्वर के इंगित पर और उसकी इच्छा के अनुसार होता है, मनुष्य केवल उसके हाथों की कठपुतली है, साधन है, माध्यम है, निमित्त मात्र है। कृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं: निमित्त मात्र भव सव्यसाचिन्। ये कौरव तो पहले ही मेरे द्वारा मार दिये गये हैं, अतः तुझे अपने भाई-बांधवों की हत्या का पाप नहीं लगेगा। संसार में जो कुछ होता है वह ईश्वर की प्रेरणा या अज्ञात् शक्ति की प्रेरणा से होता है, मनुष्य व्यर्थ ही माया-मोह के कारण स्वयं को कर्ता समझता है।

‘प्रकृतैः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः
अहंकार विभूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’।

परन्तु आज के विज्ञान, भौतिकवादी एवं तर्कप्रधान युग में यह मान्यता ठुकरा दी गयी है और यह मान लिया गया है कि मनुष्य ही अपने भाग्य का निर्माता है, वही अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य शान्ति-अशान्ति, मैत्री-संघर्ष के लिए उत्तरदायी है। स्वार्थों की टकराहट, दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच तनाव और संघर्ष से ही झगड़े, कलह, संघर्ष जन्म होता है। जब यह टक्कर दो व्यक्तियों के बीच होती है तो उसे झगड़ा या कलह कहते हैं, जब दो वर्गों या समुदायों के बीच होती है तो उसे साम्प्रदायिक या वर्गीय संघर्ष या साम्प्रदायिक दंगा कहा जाता है और जब दो राज्य सशस्त्र सेना लेकर परस्पर टकराते हैं तो उसे युद्ध का नाम दिया जाता है। त्रेता और द्वापर युग में तथा उसके बाद भी प्रथम महायुद्ध तक इस भूतल पर जितने भी युद्ध हुए वे सिमित थे, युद्ध का क्षेत्र सीमित था, सैनिकों की संख्या सीमित होती थी, अस्त्र-शस्त्र भी आज की तरह प्रलयंकारी या महाविनाशकारी नहीं होते थे। सर्वाधिक विनाशक उपकरण था तोप। युद्ध प्रायः थल-सेनाओं के बीच होता था, वायु-सेनाओं और जल-सेनाओं का अस्तित्व ही न था। अतः ये युद्ध सामान्य जनता के लिए इतने विनाशकारी और कष्टदायक नहीं होते थे। पर प्रथम महायुद्ध के समय जो कुछ हुआ उसने बता दिया कि अब युद्ध की विभीषिका से मानव जाती का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है। युद्ध के समय सेना में हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ युवकों की भरती की जाती है, गाँवों और नगरों के युवकों को प्रशिक्षित कर उन्हें युद्ध के मोर्चों पर भेज दिया जाता है। परिणामस्वरूप कृषि-उत्पादन कम होता है। कारखानों पर भी इसका असर पड़ता है। दूसरे, कारखानों में दैनिक उपयोग की, सुख-सुविधा की वस्तुओं का उत्पादन बंद कर युद्ध के लिए आवश्यक सामग्री का उत्पादन होता है। अतः सर्वत्र वस्तुओं का अभाव दिखाई देता है, महँगाई बढती है, मुद्रा-स्फीति की दर बढती है, राज-कोष को भरने के लिए नए-नए कर लगाये जाते हैं। अतः युद्ध का प्रभाव देशों की अर्थ-व्यवस्था पर पड़ता है और सामान्य नागरिक कष्ट पाते हैं। महाभारत के समय युद्ध करनेवालों के लिए भी आचार-सहिंता थी, सूर्यस्त के बाद युद्ध नहीं होगा, युद्ध केवल युद्ध-भूमि में होगा, रक्तपात केवल सैनिकों के बीच होगा, सामान्य नागरिक उसकी आँच से अछूते रहेंगे। आज इस प्रकार की कोई आचार-संहिता नहीं है। रात के समय विनाशकारी बमों से लदे वायुयान नगरों पर बम-वर्षा करते हैं और विनाश द्वारा नागरिकों का मनोबल तोड़ते हैं ताकि जनता का मनोबल टूटने पर शत्रु देश की सरकारें या तो संधि करने पर विवश हों या हथियार डालकर आत्म-समर्पण कर दें। सारांश यह है कि आज युद्ध से अपार जन-धन की क्षति होती है स्त्रियाँ विधवा, बच्चे अनाथ, बूढ़े बेसहारा हो जाते हैं। युद्ध के समय लाखों व्यक्ति मारे जाते हैं, लाखों विकलांग हो जाते हैं, वातावरण इतना प्रदूषित हो जाता है कि जो जीवित बचते हैं, वे भी अनेकों रोगों का शिकार होकर नारकीय जीवन बिताते हैं और कहते हैं कि इस जिन्दगी से तो मौत बेहतर है। अणु बम, जैविक तथा रासायनिक हथियारों ने इस स्थिति को और भी भयावह और विकराल बना दिया है। अतः नाना प्रकार की विभीषिकाओं, अराजकता, आतंक, अभावों, विसंगतियों को जन्म देनेवाला युद्ध मानव जाती के लिए अभिशाप ही है। नागासाकी तथा हिरोशिमा में अणु बमों के कारण जो दुर्दशा वहाँ के नागरिकों की हुई उसने बता दिया है कि यदि तृतीय महायुद्ध छिड़ा तो सम्पूर्ण मानव जाती का विनाश हो जायेगा, यह विश्व ही नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भाप बन कर या राख बन कर अपना अस्तित्व खो बैठेगा। युद्ध से कुछ लाभ भी होते हैं: विश्व की बढती जनसंख्या कम होती है, राष्ट्रीय चरित्र बनाने का अवसर मिलता है, हम छोटे-मोटे स्वार्थों तथा झगड़ों से ऊपर उठकर एक हो जाते हैं। भारत पर जब-जब भी संकट आया उसने अभूतपूर्व एकता का परिचय दिया। साहस, धैर्य, कष्ट-सहिष्णुता के भाव उत्पन्न होते हैं, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को भावना जन्म लेती है, कार्यकुशलता बढती है, आत्मबल उत्पन्न होता है, अस्मिता का भाव जागता है, राष्ट्र कमजोरियों से ऊपर उठकर सबल बनता है। परन्तु इनकी तुलना में युद्ध में विनाश और मानव जाति के अस्तित्व के लुप्त हो जाने का खतरा इतना भयावह है कि युद्ध को मानव जाती के लिए अभिशाप ही कहा जायेगा।

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