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आलस्य: सबसे बड़ा शत्रु पर हिंदी निबंध

शरीरिक, मानसिक, तन-मन की उत्साहहीनता, कर्म न करने की प्रवत्ति, काम को टालने की आदत (दीर्घसूत्रता) को आलस्य कहते हैं। आलसी व्यक्ति परिश्रम से जी चुराता है, आराम से पड़े रहना चाहते है, अपना और दूसरों का अहित चाहने तथा करनेवाला शत्रु होता है।

आलस्य सबसे बड़ा शत्रु क्यों है? मनुष्य दुर्बलताओं का पुतला है – क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, कामवासना, लोभ, मोह आदि अनेक शत्रु हैं, परन्तु ये शत्रु अहित तो करते हैं परन्तु सर्वस्व हरण नहीं करते। आलस्य परम् शत्रु इसलिए है कि वह सारे, सब प्रकार के कष्टों का जनक है। आलस्य हमें दरिद्र बनता है क्योंकि आलसी व्यक्ति परिश्रम नहीं करता तथा निरुद्यमी व्यक्ति कितना ही लक्ष्मीपति हो, उसका धन-भंडार शनैः शनैः खाली होता जाता है। आलस्य उन्नति तथा प्रगति का बाधक है क्योंकि प्रगति होती है योजनाबद्ध कार्य करने से और आलसी व्यक्ति मानसिक शिथिलता के कारण योजना नहीं बना पाता और शारीरिक शिथिलता के कारण योजना को पूरा नहीं कर पाता। विद्यार्थी आलस के कारण नियमित रूप सर अध्ययन नहीं करता और कक्षा में फिसड्डी रह जाता है, वार्धिक परीक्षा में उत्तीर्णः नहीं हो पता। सरकारी कार्यालय में काम करने वाला कर्मचारी ठीक से काम न करने के कारण पदोन्नति नहीं पाता जबकि उसका उद्यमी, परिश्रमी साथी उसका बॉस बन कर उस पर रौब झाड़ने लगता है। व्यापारी आलस्य के कारण समय पर खरीदार को अपना माल नहीं पहुँचाता, इससे उसका काम ठप्प हो जाता है। आलसी व्यक्ति खटिया पर पड़ा आराम करता है या गहरी नींद में सोया रहता है तथा कुम्भकर्ण की संज्ञा पाता है। स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध वायु, व्यायाम, आवश्यक हैं परन्तु आलसी व्यक्ति ब्रह्ममुहूर्त में उठना तो दूर रहा, सूर्योदय के बाद भी सोता रहता है; न व्यायाम करता है न प्रातःकालीन भ्रमण कर शुद्ध वायु का सेवन ही कर पाता है। नियमित भोजन न करने से उसकी पाचन-शक्ति भी दुर्बल पड़ जाती है और रोग उसे दबा लेते हैं। रोग, पातक और पाप दुर्बल व्यक्ति को ही दबाते हैं।

आलस्य हमारी इच्छाशक्ति को, संकल्प-शक्ति को शिथिल बनाता है। सोने से पूर्व हम संकल्प करते हैं कि प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठ जायेंगे, घड़ी में अलार्म भी लगा देते हैं पर आलर्म की घंटी बजकर शान्त हो जाती है और हम करवट लेकर, कुनमुना कर पुनः सो जाते हैं। संकल्प धरा का धरा जाता है। आलसी व्यक्ति में न आत्मबल होता है, न आत्मविश्वास। वह भग्यवादी बन जाता है। अपने दोषों, अपनी त्रुटियों को उत्तरदायी न मानकर अपने कष्टों के लिए भाग्य, प्रारब्ध, नियति, विधि, माथे या हाथ की रेखाओं को दोष देता है और मलूकदस की काव्य पंक्तियाँ दोहरा कर अपनी बात का समर्थन करता है:

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम
दास मलूक कह गये, सबके दाता राम।

भलेमानस से पूछो, क्या अजगर कीड़े-मकोड़े खाने के लिए अपने बिल से, झाड़ी से नहीं निकलता? क्या पक्षी प्रातःकाल से संध्या तक भोजन की तलाश में खेतों, जंगलों में विचरण नहीं करते। सिंह जैसे पराक्रमी और शक्तिशाली वनराज को भी शिकार करना पड़ता है:

‘न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः’

अर्थात् सिंह जैसे पुरुषार्थी जंगल के राजा के मुख में भी पशु स्वयं भक्ष्य बन कर प्रवेश नहीं करते; उसे भी मृगों के पीछे भागना-दौड़ना पड़ता है। ऋग्वेद कहता है: ‘देवता भी आलसी से प्रेम नहीं करते‘ (न सुप्ताय स्पृहयन्ति देवाः)

आलसी की सर्वत्र दुर्गति होती है। वह न नहाता है, न कपड़े बदलता है, अतः उसके शरीर से दुर्गन्ध आती है, कोई उसके निकट नहीं जाता, बात करना तो दूर रहा; कुत्ते तक उसके मुँह चाटते हैं। अतः आलसी व्यक्ति न स्वस्थ रहता है, न सुखी, न सम्पन्न। निराशा, उदासी, अकर्मण्यता से घिरा वह सबकी घृणा, उपहास, तिरस्कार का पात्र बनता है। आलस्य ही मनुष्य को परावलम्बी, परमुखापेक्षी बनाता है। आलस्य के कारण नियमित रूप से कक्षा में न जानेवाला विद्यार्थी अद्यापक की बतायी बातें न सुनता है, न लिखता है, संदर्भ ग्रंथों से नोट्स नहीं बनता और जब परीक्षा सिर पर आती है तो अपने सहपाठियों की खुशामद, चापलूसी करता है, दिन होकर खिसियाता है और उनके द्वारा दुत्कारे जाने पर खीझता है, झुंझलाता है, निराश एवं उदास होकर बैठ जाता है तथा अंग्रेजी विद्वान कार्लाइल की इस उक्ति को चरितार्थ करता है: “एक मात्र आलस्य में ही निराशा निरन्तर निवास करती है।” तमिल संत तिरूवल्लवुर का कथन है: “आलस्य में दरिद्रता का वास है” तो जैरमी टेलर का विचार है कि आलस्य जीतेजी मृत्यु है: ‘Idleness is the burial of a living man’ अद्यापक पूर्ण सिंह ने भी अपने निबन्ध ‘आचरण की सभ्यता’ में आलस्य को मृत्यु कहा है।

आलसी व्यक्ति को न खाने-पीने की चिन्ता होती है और न ईश्वर के दर्शन की। वह न पेट भरने के लिए उठता है और न ईश्वर-प्राप्ति के लिए सिजदा करने को ही तैयार होता है:

मर जाना पैं उठके कहीं जाना नहीं अच्छा
सिजदे से गर बहिश्त मिले दूर कीजिए।
फाके से मरिए पर न कोई काम कीजिए।

जो आलसी नहीं है, कर्मठ है, पुरुषार्थी है सफलता, यश, कीर्ति उसके चरणों की दासी है। अर्जुन को गुडाकेश अर्थात् नींद जितनेवाला कहा गया है, वह अपनी वीरता के लिए विख्यात है। राम-वनवास के अवसर पर लक्ष्मण रत-भर राम-सीता की पर्णकुटी के द्वार पर वीरासन लगाये जागते रहते थे। वह महायती कहलाते हैं, भ्रातृ के आदर्श माने जाते हैं। गीता में ‘कर्मयोग’ पर बल दिया गया है, अकर्म को पाप कहा गया है।

‘मा कर्मफल हेतुर्भु, मा ते संगोस्तिकर्मणि’

प्रेमचंद्र आलस्य को रोजगार बताते हैं, चेस्टफील्ड आलस्य को मूर्खों का आश्रय-स्थल कहते हैं: ‘Idleness is only the refuge of the weak minds’ कबीर और गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली काम टालने की आदत की निन्दा करते हैं। रत्नावली कहती है:

‘अबको करिबौ अबहि करि, तबहि पुरै सुख साज’

तो कबीर की वाणी है:

कल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में प्रलय होइगी, बहुरि करैगो कब।।

जीवन जागरण का ही दूसरा नाम है, सुप्ति, अग्नि, मृत्यु है। इसीलिए भर्तृहरि ने नीतिशतक में आलस्य को मनुष्य का घोर शत्रु बताया है:

‘आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महा रिपुः’

अतः आलस्य रूपी इसी महान रिपु को दूर भागइये, उद्यमी बन कर नर को सार्थक करिये। उद्यम सबसे बड़ा हितचिन्तक है।

‘नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदंति।’

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