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Democracy

प्रजातंत्र बनाम तानाशाही पर हिंदी निबंध

प्रजातंत्र और तानाशाही एक दूसरे की विरोधी अवधारणाएँ हैं; उनका सम्बन्ध 3 और 6 का है। उनकी संरचना, उनका उद्देश्य, उनकी कार्यप्रणाली, कार्यकलाप सर्वथा विपरीत होते हैं। प्रजातंत्र को लोकतंत्र, गनतंत्र, जनतंत्र भी कहा जाता हैं। इसी प्रकार तानाशाही का दूसरी नाम है एकतंत्र। लोकतंत्र या प्रजातंत्र में जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है, ये प्रतिनिधि विधायक या सांसद बनकर देश के शासन की बागडोर संभालते हैं और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे देश की प्रगति तथा जनता के कल्याण की नीति अपना कर जनहित के कार्य करेंगे: देश उन्नति करेगा, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास होगा और देशवासी सुखी, सम्पन्न और समृद्ध होंगे। इसके विपरीत एकतंत्र या तानाशाही शासन-व्यवस्था में शासन करनेवाला जनता द्वारा चुने जाने के बाद राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष नहीं बनता। वह कोई धूर्त, मक्कार, चालाक व्यक्ति होता है जो कभी जनता दुवारा चुनी गयी सरकार को बदनाम कर, उसकी त्रुटियों, भूलों को बढ़ाचढ़ा के दिखाकर जनता को बरगलाता है और प्रायः अपनी सैन्य शक्ति द्वारा अवसर पाते ही चुनी हुई सरकार और उसके अधिपति को कुर्सी से हटाकर स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता है। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति और देश के सर्वेसर्वा जनरल परवेज मुशर्रफ ने यही किया था, तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सेना की सहायता से बंदी बनाकर स्वयं देश के शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी और बाद में नवाज शरीफ को देश छोड़कर विदेश जाने और वहीं बसने के लिए बाध्य किया था। सारांश यह कि लोकतंत्र में जनता को अपना शासनाध्यक्ष चुनने का अधिकार है, स्वतंत्रता है जबकि तानाशाही में वह जनता को दबाकर रखता है, उसमें जनता नहीं एक व्यक्ति सर्वोपरि होता है। प्रजातंत्र में प्रायः प्रति पाँच वर्ष के बाद चुनाव होते हैं और यदि पहले चुनाव में जीतकर शासन करनेवालों का कार्य संतोषजनक नहीं होता, पाँच वर्ष की अवधि में लोकहित के कार्य जनता की अपेक्षाओं और आशा के अनुरूप नहीं होते तो जनता चुनाव में उस दल के प्रत्याशियों को तिरस्कृत कर, उन्हें चुनाव में पराजित कर दूसरे दल के प्रत्याशियों को जीतकर उन्हें शासन करने का अधिकार सौंप देती है। इस प्रकार जनता को प्रति पाँच वर्ष बाद अपने शासक चुनने की स्वतंत्रता और अधिकार है। इसके विपरीत तानाशाही में जब कोई धूर्त और शक्तिशाली व्यक्ति एक बार सत्तारुढ़ हो जाता है, तो वह चाहता है कि जीवन-भर सत्ताधीश बना रहे। अतः वह प्रथम तो चुनाव कराता नहीं, चुनाव कराने के झूठे आश्वासन देता रहता है और यदि चुनाव कराता भी है तो वे निष्पक्ष, निर्भय चुनाव नहीं होते। सैन्य बल, आतंकवादी कार्यों से जनता को बाध्य किया जाता है कि वह उसी की बनायी गई राजनितिक पार्टी के या उसके इशारे पर नाचने वाले दलों के प्रत्याशियों को चुने। जैसा कि जनरल परवेज मुशर्रफ ने किया और दुनिया को दिखाने के लिए जनता द्वारा चुना गया राष्ट्राध्यक्ष बन गया।

जनतंत्र व्यवस्था जनता की, जनता द्वारा तथा जनता के हित के लिए होती हैं। अतः जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जनता के हित के कार्य करते हैं। यदि जनता के सच्चे शुभचिन्तक न भी हों, तो अगला चुनाव हारने के भय से, जनता की इच्छाओं के दबाव में जनहित के कार्य करते हैं। तानाशाह को इस प्रकार का कोई भय नहीं होता, उसे चुनाव की प्रक्रिया में नहीं गुजरना पड़ता, वह निरंकुश होता है। अतः वह जनहित के कार्य कम करता है, अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाये रखने, कुर्सी पर पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए, अपनी तिजोरियाँ या समर्थकों की तिजोरियाँ भरता रहता है। परिणाम होता है केवल कुछ लोग सुखी-सम्पन्न होते हैं और जन साधारण की दशा दीन-हीन बनी रहती है, देश प्रगति नहीं कर पाता; सारा ध्यान केवल सैन्य शक्ति बढ़ाने पर केन्द्रित रहता है जिसके बल पर वह सत्तारुढ़ होता है। अपनी प्रभुता, अपना वर्चस्व दिखाने तथा जनता को यह दिखाने के लिए कि उसके नेतृत्व में देश शक्तिशाली बन रहा है, वह अकारण पड़ोसी देशों पर आक्रमण कर बैठता है, ‘भले ही उस युद्ध से अपार क्षति होती और अन्त में पराजय के कारण देश को लज्जित होना पड़े। तानाशाही में यदि एक तानाशाह का तख्ता पलटा जाता है तो इस कारण कि सत्तारुढ़ व्यक्ति से भी अधिक धूर्त, चालाक, शक्तिशाली व्यक्ति अवसर मिलते ही उसे अपदस्थ कर देता है जैसा कि पाकिस्तान में होता रहा है।

लोकतंत्र में व्यक्ति-स्वातंत्र्य होता है: सोचने-विचरने की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कार्य करने की स्वतंत्रता। तानाशाही में जन इन तीनों स्वतंत्रताओं से वंचित रहता है। वह अपनी इच्छानुसार कार्य तो कर ही नहीं ससकता क्योंकि सेना, पुलिस, शासनतंत्र की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है, उसे अपनी बात कहने की भी स्वतंत्रता नहीं होती। सत्ता के विरुद्ध बोलने, कहने, लिखने वाला भले ही वह व्यक्ति हो, कोई संस्था हो, कोई दल हो या कोई समाचार-पत्र दंडित होता है। यदि कोई तानाशाह शक्तिशाली होने के साथ-साथ विलासी भी हो जैसे लीबिया का तानाशाह कर्नल गद्दाफी था तब तो देश और देशवासियों की दशा और भी दयनीय हो जाता है क्योंकि राजकोष का सारा धन या तो सैन्य शक्ति बढ़ाने या फिर भोग-विलास के उपकरण जुटाने में खर्च किया जाता है और धनभाव में विकास-योजनाएँ या तो बनती या फिर ठंडी फाइलों में धूल चाटती रहती हैं।

उर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जहाँ प्रजातंत्र या लोकतंत्र जनता की लिए हितकारी होती है, वहाँ तानाशाही शासन-व्यवस्था में व्यक्ति, समाज, देश सबकी दुर्दशा होती है। इसीलिए लोकतंत्र को सबसे उत्तम तथा तानाशाही को सर्वाधिक निकृष्ट व्यवस्था कहा गया है।

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